कहीं दरिया किनारे वो डूबती शाम
कहीं निखरती चांदनी तो चमकता चाँद
वहीँ ठंढ ओढ़े वो कांपती रात
उन्हीं लम्हों में कहीं गुजारिश करते
बस मैं और तुम
गुजारिश की वो नदी निर्मल कर दे
हमारे तन मन को इस कदर
जैसे ॐ के जटा से निकली
गंगा की पवित्र धारा !
चांदनी कुछ इस कदर
टूटकर बरसे हम पर
की हम देख लें
एक दूसरे के मन के आर पार
जिसमे बस हमीं बसें हो
सदा सदा के लिए !
चाँद ऐसा आईना बने हमारा
जिसमे रात भर देखें हम
तब भी हमें बस एक जिस्म दिखाई दे
जैसे दो रूह एक हो गयी हों !
ठंडी रात मेहरबान हो हम पर ऐसे
की तेरे जिस्म की पिघलती हर आरजू
मेरे सीने में कहीं जा बसे
और हर रात वो पूरी हो
आहिस्ता आहिस्ता करके !!!
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