मैं तो हर शबे-महताब चलूँ !!!

 पागल-पागल कहते फिरते मैं फिर भी उनकी राह चलूं |
हो दश्त-ए गम कितना भी मैं हर रस्ता बे-हिरास चलूं |
इस मुकम्मल जहान में महबूब न कोई आशना मेरा
अहद-ए-शबाब लेकर मैं फिर भी उल्फत-ए-राह चलूं |
गुजरता हुआ वक़्त और फ़िगार सा ठहरता हुआ मैं  
हंसीं आखों में लिए ख्वाब तेरा तेरे तलबगार चलूँ |
यहाँ दिन में उजाले नहीं होते ,ये मायावी दुनिया है
जलता बुझता जुगनूँ सा मैं तो हर शबे-महताब चलूँ |
अहद-ए-शबाब=जवानी का वक्त
बे –हिरास= बिना डर के
फ़िगार= चिन्तित