वक्त की दहलीज पर खड़ा मै निहारता रहता हूँ
एक तरफ दूर तक फैली मुस्कुराती ख़ुशी को
तो दूसरी तरफ पसरी खामोश उदासी को |
मुझे याद है जब दोनों सहेलियां हुआ करती थीं
एक दूसरे का हाथ पकड़ साथ-साथ चलती थी |
दोनों रूप भी बदलती थीं ,
कभी ख़ुशी उदासी बन जाती थी
तो कभी उदासी ख़ुशी का रूप ले लेती थी
दोनों मचलते हुए मेरे पास आती थीं,
मै उन्हें पहचान ही नहीं पाता था
और दोनों को ही गले से लगा लेता था |
लेकिन वक़्त की जंजीरों में बंधा,
मै न जाने कब बहुत दूर निकल गया
और जब पीछे मुड़कर देखा तो पाया
अनजाने में ही मैंने उनका घर बदल दिया था
उन्हें अलग कर दिया था |
ख़ुशी मुझे अच्छी लगती थी
मैंने उसे अपने ओंठों पर बिठा लिया
और उदासी को दूर आँख के कोने में छिपा दिया |
इस तरह तोड़ दिया मैंने उनके बीच पनप रहे
कभी न मिटने वाले मुबब्बत के सिलसिले को |
दोनों कभीं नही मिल पाती हैं अब
न कभी ख़ुशी आँखों तक पहुँच पाती है
और न ही मै कभी ओंठों पर उदासी को आने देता
हूँ |
No comments:
Post a Comment