आओ कभी यूँ ही, अचानक
न कोई फ़ोन , न कोई मैसेज
न कोई बहाना, न कोई कहासुनी,
बस यूँ ही ,कभी अचानक
जैसे टूट पड़ता है कोई सितारा
यूँ ही अचानक, किसी रात !
वही पीली साड़ी, हाथ 2 कंगन,
माथे पर छोटी सी कत्थई बिंदी
न साजो-सामान से लिपा चेहरा
न ही सृंगार से लदा तुम्हारा बदन
दूर से ही मुझे देख दौड़ पड़ना
शाम के धुंधलके में लिपट जाना
गले में डाल देना अपनी बाहें
और रंग जाना लाल मिटटी से
बस यही तुम्हारा श्रृंगार होगा
कभी यूँ ही किसी दिन, अचानक !!
शाम ढले, रात ढले, दिन आये
तुम्हारे अधरों पर लौटने की जिद न आये
किसी सहर की भीगी हवाओं में
सुनसान सड़क के किनारे
बिखरे गीले पत्तों को उठाते उड़ाते
चले जाएँ बड़ी दूर तक
एक दूसरे का हाथ थामे हुए
बेवजह, बेधड़क , बिन आवाज
न देर होने का भय हो
न जलती धूप का असर हो
चलते जाएँ हम तुम अनवरत
बस यूँ ही अचानक किसी दिन
न कोई फ़ोन, न कोई मेसेज !!!!
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