इक चुपचाप सी शाम में
जहाँ हवा ठहर सी गयी थी
जहाँ बस 1 गज के फासले में
4 साल का इन्तजार छुपा बैठ था
बेंच जिस पर हम बैठे थे, खुश थी
हमें फिर से एकसाथ देखकर ।।
बेंच के सामने वाला फूल
आज मस्ती में नाच रहा था
जो कभी हमें देखकर
जलन के मारे सिर घुमा लेता था ।।
उन खामोशियों में बिन आवाज
उसने अपना बैग खोला
कुछ ढूंढा और वापस बंद कर दिया
कहा कुछ भी नहीं..
मैं भी तो नही पूछ पाया
बस देखता रहा उसके चेहरे को
चुपके से , तिरछी निगाहों से
सब ठहरा हुआ , मैं , वो , आवाज
वह हिली , इस बार अपनी जुल्फों के लिए
जुल्फें सही हुई, ओंठ बुदबुदाये
मगर आवाज ...वह तो अब भी नही हुई
इन्तजार लंबा होता रहा
शाम गहराती गयी
दिल में कुछ आता रहा, जाता रहा
जब ओंठ थक गए चुप रहकर
मन हुआ कि कह दूँ
अभी भी वहीँ आँखें, वही जुल्फें
वही चुप सा रहना ,
बिलकुल नही बदली तुम
और देखो मैं भी तो नही बदला
तुम्हे चाहता हूँ उसी तरह अब भी
की मेरे कुछ कहने से पहले ही
आवाज हुई और कह दिया उसने
कितना बदल गए हो तुम ।।।
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