हर जर्रे में हमारी दास्ताँ हो !!!

मदहोशी का आलम हो, न सुबह, न शाम हो
तू सामने रहे नजर के, न भूख हो, न प्यास हो |
हर गुफ्तगू तेरी हो, पर एक चाहत मेरी हो
मैं सुन लूँ तुझे, तू आवाज हो चाहे बे-आवाज हो |
तेरे आंसू मेरे बने, मेरी हंसी तुझपे मरे
ख़ुशी तेरी मुट्ठी में हो, मेरा वक़्त तेरा गुलाम हो |
मुझे कोई अच्छा न लगे, कभी कुछ बुरा न लगे
ऐतबार हो तो तुझपर हो, रुसवाई हो तो तुझसे हो |
लहर चींखें देखकर मुझे, साहिल मुझसे तेरा नाम पूछे 
हर तरफ हमारा शोर हो, हर जर्रे में हमारी दास्ताँ हो | 

वो खुदा था मेरा !!!

कहना तो बहुत कुछ था लेकिन कभी कुछ कह नही पाया |
सच कहूँ तो अपने लब्जों से उसे कभी मैं छू नही पाया |
चाहता था कि मेरी हर सुबह उसके दीदार से ही शुरू हो
क्या करता? उसके कमरे का आइना मैं कभी बन नहीं पाया |
वो खुदा था मेरा उसके लिए तो मुझे मरना भी मंजूर था
वक़्त कुछ ऐसे चला कि मै कुछ भी साबित कर नही पाया |
आज भी रहता हूँ उसी खंडहर में जहाँ से गुजर गया था वो
लौट आएगा वो, इस उम्मीद को मैं दिल से मिटा नही पाया |

जो खुद को मिटाने चला था !!!

किसी कोने में रो रहा है वो, जो सभी को हंसाने चला था |
अब कौन याद करता है उसे, जो खुद को मिटाने चला था |
ये दुनिया कितनी जालिम है जो उसे भी चोर कह दिया 
वह तो  बस वक्त से दो लम्हा खुद के लिए चुराने चला था |
कभी दर्शन तो न हुए, लेकिन मंदिर के चौखट पर मर गया वो
गरीब, जो आज अपने भगवान को खाली हाथ पूजने चला था |
और देख लो हार कर वो भी वापस लौट आया है “प्रकाश”
परिंदा जो कल बादलों को चीर आसमान को छूने चला था |