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महकती रात के आंचल से पिघलती चांदनी
महकती रात के आंचल से पिघलती चांदनी
जब जर्रे जर्रे में समा कर सिमटने लगी हो
दूर कहीं बादलों, नदियों, पहाड़ों के पीछे
सुनहला सूरज जब अगड़ाईंयां लेने लगा हो
पहर जब महताब की मखमली चांदनी
आफ़ताब की किरणों से मिलने लगी हो
वो नूर भोर का कभी देखा है किसी ने...
हां, देखा है तुम्हारे चेहरे पर वही नूर हमने !
घने कोहरे से ढकी कोई भीगी रात जब
सुबह होते ही अपनी चादर समेटने लगे
किसी पेड़ के पत्ते से इक बूंद शबनम की
फिसलती हुई किसी कली पर गिर जाए
गिर के छिटक जाए,हर तरफ बिखर जाए
उस बिखरती बूंद से बरसती मुहब्बत में
एक कली को फूल बनते देखा है किसी ने
हाँ, देखा है तुम्हे ऐसे ही खिलता हुआ हमने !