पागल-पागल कहते फिरते
मैं फिर भी उनकी राह चलूं |
हो दश्त-ए गम कितना भी
मैं हर रस्ता बे-हिरास चलूं |
इस मुकम्मल जहान में महबूब
न कोई आशना मेरा
अहद-ए-शबाब लेकर मैं फिर
भी उल्फत-ए-राह चलूं |
गुजरता हुआ वक़्त और
फ़िगार सा ठहरता हुआ मैं
हंसीं आखों में लिए
ख्वाब तेरा तेरे तलबगार चलूँ |
यहाँ दिन में उजाले नहीं
होते ,ये मायावी दुनिया है
जलता बुझता जुगनूँ सा मैं
तो हर शबे-महताब चलूँ |
अहद-ए-शबाब=जवानी का
वक्त
बे –हिरास= बिना डर के
फ़िगार= चिन्तित